हरदा की गुगली में उलझी कांग्रेस

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वरिष्ठ पत्रकार गिरीश खड़ायत की कलम से,,,

उत्तराखंड की सियासत के सबसे तजुर्बेकार और अपनी सियासी समझ से हमेशा सुर्खियों में रहने वाले हरीश रावत ने एक बार फिर देवभूमि में सर्द हवाओं के बीच राजनीतिक गर्माहट पैदा कर दी है। हरदा ने इस बार ऐसी गुगली फेंकी है जिसमें उनकी अपनी ही पार्टी कांग्रेस उलझकर रह गई है। हरीश रावत के एक ट्टवीट ने देहरादून से लेकर दिल्ली तक की कांग्रेस लीडरशिप के सामने नया संकट खड़ा कर दिया है। हरीश रावत ने ट्टवीट के जरिए उत्तराखंड में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कांग्रेस का सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने का मांग की है। हरीश रावत ने ट्टवीट किया है......
#Thank_You #देवेंद्र_यादव जी, आपके बयान ने मेरा मान बढ़ाया। हरीश रावत ही क्यों! प्रत्येक नेता व कार्यकर्ता के बिना 2022 की लड़ाई अधूरी है, पार्टी को बिना लाभ-लपेट के 2022 के चुनावी रण का सेनापति घोषित कर देना चाहिये, पार्टी को यह भी स्पष्ट कर देना चाहिये कि कांग्रेस की विजयी की  स्थिति में वही व्यक्ति उत्तराखंड का मुख्यमंत्री होगा।
अपने ट्वीट में हरीश रावत ने पार्टी कार्यकर्ताओं तक गुटबाजी पहुंचने का जिक्र भी किया है। हरीश रावत ने लिखा है......
“इस समय अनावश्यक कयास बाजियों तथा मेरा-तेरा के चक्कर में कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट रहा है एवं कार्यकर्ताओं के स्तर पर भी गुटबाजी पहुँच रही है। मुझको लेकर पार्टी को कोई असमंझस नहीं होना चाहिये, पार्टी जिसे भी सेनापति घोषित कर देगी मैं उसके पीछे खड़ा रहूँगा।“

बयान की टाइमिंग बेहद अहम
हरीश रावत का ये बयान ऐसे वक्त में आया है जबकि चंद रोज पहले ही कांग्रेस प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव कुमाऊं और गढ़वाल मंडल के नेताओं को एकजुटता का पाठ पढ़ाकर गए हैं। ऐसे में पूर्व मुख्यमंत्री का 2022 के लिए सेनापति घोषित करने की मांग करने के कई मायने हैं। पहला तो यही समझा जा रहा है कि वो 2022 में कांग्रेस का सेनापति बनने के लिए बेताब हैं। दूसरा वो उत्तराखंड कांग्रेस में अपने विरोधियों को खुली चुनौती दे रहे हैं। तीसरा वो उत्तराखंड की पूरी राजनीति का ध्यान  अपनी ओर केंद्रित करना चाहते हैं और वो आलाकमान को भी ये संदेश दे रहे हैं कि अगर उनके मुताबिक उत्तराखंड में सियासी बिसात नहीं बिछाई गई तो 2022 में कांग्रेस का सत्ता तक पहुंचने का सपना चकनाचूर हो सकता है।   

कांग्रेस में गुटबाजी को हवा
हरीश रावत के बयान के बाद उनका गुट पूरी तरह सक्रिय हो चुका है और पूर्व स्पीकर गोविंद सिंह कुंजवाल ने तो खुलेआम कह दिया है कि कांग्रेस को चेहरा घोषित कर देना चाहिए और वो चेहरा कोई और नहीं बल्कि सिर्फ हरीश रावत ही होने चाहिए। कुंजवाल का ये बयान हरीश रावत के समर्थन के साथ साथ कांग्रेस की कलह भी उजागर कर रहा है। जबकि प्रीतम समर्थक नेता हरीश रावत की राय से इत्तेफाक नहीं रखते, प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना ने गेंद आलाकमान के पाले में डाली है। धस्माना ने साफ किया है कि प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रतिनिधि हैं लिहाजा उनका फैसला ही अंतिम है और चुनाव सामुहिक नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। यानि प्रीतम सिंह का गुट फिलहाल मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के पक्ष में नहीं है।

गुटबाजी की पुरानी परम्परा
असल में उत्तराखंड कांग्रेस की गुटबाजी नई बात नहीं है, 2016 में कांग्रेस के भीतर बगावत गुटबाजी का ही नतीजा थी, 2017 विधानसभा चुनाव में हार भी गुटबाजी की वजह से ही मिली। 2017 में हारने के बाद प्रीतम सिंह को संगठन की कमान सौंपी गई थी जबकि इंदिरा हृदयेश को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। इससे हरीश रावत का खेमा बेहद खफा था, लिहाजा कई बार खुले तौर पर इंदिरा हृदयेश को हटाने की मांग भी की गई लेकिन आलाकमान ने इसे खारिज कर दिया। मौजूदा वक्त में उत्तराखंड कांग्रेस के अंदर हरीश, प्रीतम और इंदिरा गुट ही प्रमुख हैं। अब तक हरीश रावत के समर्थक ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की मांग कर रहे थे, लेकिन अब हरीश रावत ने खुद मोर्चा संभाल लिया है। ऐसे में साफ है कि प्रीतम और इंदिरा गुट के सामने चुनौती बड़ी हो गई है, जबिक हरीश रावत कैंप को खुलेतौर पर आवाज़ बुलंद करने का लाइसेंस मिल गया है। उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव एक साल बाद होना है, लेकिन हरीश रावत की बढ़ती सक्रियता पार्टी में उनके विरोधियों की बेचैनी बढ़ा रही है और कांग्रेस की गुटबाजी को भी हवा दे रही है। ऐसे में सवाल इसी बात का है कि अब आलाकमान क्या करेगा ? आखिर कैसे उत्तराखंड कांग्रेस के नेता एकजुट होंगे? क्या मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाएगा ? अगर किया जाएगा तो वो कौन होगा?

चुनाव, चेहरा और इतिहास
उत्तराखंड का इतिहास देखें तो अब तक जिस भी पार्टी ने किसी के चेहरे पर चुनाव लड़ा है उसे सत्ता नहीं मिली है। राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में 4 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं जिसमें 2 बार कांग्रेस और 2 बार बीजेपी को जीत मिली है। 2002 में बीजेपी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था, मगर बीजेपी को जनता का समर्थन नहीं मिला और कांग्रेस की सरकार बनी। 2007 में कांग्रेस ने तत्कालीन सीएम एनडी तिवारी की अगुवाई में चुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। 2012 में बीजेपी खंडूरी है जरूरी नारे के साथ उतरी थी लेकिन कामयाबी नहीं मिली और खंडूरी अपनी विधानसभा सीट भी नहीं बचा पाए। 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने सबकी चाहत हरीश रावत और उत्तराखंड रहे खुशहाल, रावत पूरे पांच साल जैसे नारे दिए थे लेकिन जनता ने ना सिर्फ कांग्रेस को खारिज किया बल्कि हरीश रावत को भी दो-दो विधानसभा सीटों से हार का सामना करना पड़ा, और कांग्रेस महज 11 सीटों तक सिमट कर रह गई। आंकड़े भले ही इतिहास बता रहे हों लेकिन क्या कांग्रेस इस इतिहास को नज़रअंदाज कर पाएगी ये बेहद अहम सवाल है।

उत्तराखंड और हरीश रावत
उत्तराखंड बनने के बाद से ही हर चुनाव में हरीश रावत का रोल बेहद अहम रहा है। 2002 में हरीश रावत कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष थे और उन्हें सीएम पद का स्वाभाविक दावेदार भी माना जा रहा था, लेकिन आलाकमान ने एनडी तिवारी पर भरोसा जताया, 2007 में भी हरीश रावत ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष थे, लेकिन इस बार जीत बीजेपी को मिली। 2012 में हरीश रावत हरिद्धार से सांसद होने के साथ साथ केंद्र में मंत्री थे और चुनावी रणनीति में उनका अहम रोल था, कांग्रेस सत्ता तक पहुंची तो हरीश रावत को ही मुख्यमंत्री का सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने इस बार विजय बहुगुणा को सीएम बना दिया। दो बार मौका हाथ से निकलने के बाद उनके समर्थक मायूस हो चुके थे लेकिन हरीश रावत ने हार नहीं मानी और तमाम सियासी तिकड़म के बाद वो 1 फरवरी 2014 को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में वो सरकार बचाते ही नज़र आए। आखिरकार मार्च 2016 में कांग्रेस में बगावत हुई और बहुगुणा कैंप के 9 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए।  इस बगावत के बावजूद हरीश रावत ने सदन में बहुमत साबित किया और सरकार चलाते रहे, लेकिन 2017 में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई। विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद उनके विरोधी शायद सोचने लगे थे कि अब हरीश रावत राजनीतिक तौर पर बैकफुट पर चले जाएंगे। लेकिन आलाकमान ने उन पर भरोसा जताया और 2018 में राष्ट्रीय स्तर पर महासचिव बनाकर असम का प्रभारी भी बना दिया। हरीश रावत और उनके समर्थकों के लिए ये संजीवनी की तरह था। इसके बाद 2019 में हरीश रावत नैनीताल सीट से लोकसभा चुनाव भी हार गए लेकिन आलाकमान ने उन पर भरोसा कायम रखा और 2020 में हरीश रावत को असम की बजाय पंजाब का प्रभार देकर उनका सियासी कद और ज्यादा बढ़ा दिया। इन तमाम उतार चढ़ावों के बाद अब 2022 के चुनाव के लिए हरीश रावत अपनी सियासी चाल चलने लगे हैं, ऐसे में देखना यही होगा कि हरीश रावत की सीएम का चेहरा घोषित करने की मांग वाली गुगली कितनी कारगर साबित होती है।

 

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